➤2006 के मुंबई ट्रेन सीरियल ब्लास्ट केस में बॉम्बे हाईकोर्ट ने सभी 12 दोषियों को बरी कर दिया
➤कोर्ट ने कहा: अभियोजन पक्ष आरोपियों के खिलाफ पुख्ता सबूत देने में विफल रहा
➤11 जुलाई 2006 को हुए धमाकों में 189 लोगों की मौत और 824 लोग घायल हुए थे
मुंबई की लोकल ट्रेनों में 11 जुलाई 2006 को हुए भयानक सीरियल बम धमाकों के मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने सोमवार को बड़ा फैसला सुनाया। अदालत ने इस मामले में दोषी ठहराए गए सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया है। हाईकोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष आरोपियों के खिलाफ अपराध साबित करने में नाकाम रहा, इसलिए उन्हें संदेह का लाभ दिया जाता है।
19 साल बाद आए इस फैसले में अदालत ने अपने आदेश में साफ किया कि जिन गवाहों की गवाही और जब्त सबूतों के आधार पर सजा दी गई थी, वे न्यायिक रूप से पर्याप्त नहीं हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि बम विस्फोटों में प्रयुक्त विस्फोटक सामग्री की सीलिंग और संरक्षण में खामियां थीं, जिससे उनके प्रमाणिक होने पर संदेह पैदा होता है। साथ ही अभियोजन पक्ष बम के प्रकार को स्पष्ट रूप से रिकॉर्ड में नहीं ला सका।
कोर्ट ने आरोपियों से लिए गए कबूलनामों को भी अविश्वसनीय बताया। न्यायालय के अनुसार, ये बयान जबरन लिए गए प्रतीत होते हैं और इनमें स्वतः स्वीकृति का भाव नहीं दिखता। कोर्ट ने कहा कि यदि ये आरोपी किसी अन्य मामले में वांछित नहीं हैं, तो उन्हें तुरंत जेल से रिहा किया जाए।
यह घटना 11 जुलाई 2006 को शाम के व्यस्त समय में हुई थी, जब मुंबई की वेस्टर्न लाइन की सात लोकल ट्रेनों के फर्स्ट क्लास डिब्बों में एक के बाद एक बम धमाके हुए थे। इन धमाकों में 189 लोगों की मौत हुई थी, जबकि 824 यात्री घायल हुए थे। यह भारत के आतंरिक सुरक्षा इतिहास की सबसे बड़ी घटनाओं में एक मानी जाती है।
घटना के बाद महाराष्ट्र एटीएस और अन्य एजेंसियों ने 12 आरोपियों को गिरफ्तार किया था। 2015 में विशेष अदालत ने इनमें से कुछ को मौत की सजा और कुछ को उम्रकैद की सजा दी थी। लेकिन हाईकोर्ट के फैसले ने इस पूरे मामले को एक नया मोड़ दे दिया है।
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला जांच एजेंसियों और अभियोजन की कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़ा करता है। एक तरफ जहां कोर्ट का यह निर्णय कानूनी प्रक्रिया और ‘संदेह का लाभ’ सिद्धांत की पुष्टि करता है, वहीं यह भी दर्शाता है कि आतंक जैसे गंभीर मामलों में जांच और सबूत पेश करने की प्रणाली में पारदर्शिता और मजबूती अत्यंत आवश्यक है।
इस फैसले से पीड़ितों के परिजन निराश जरूर हैं, लेकिन न्यायालय ने अपने फैसले में यह स्पष्ट कर दिया है कि कानून के दायरे में रहकर ही किसी को दोषी ठहराया जा सकता है — केवल संदेह के आधार पर नहीं।