Jat community Haryana: हरियाणा में आगामी निकाय चुनावों को लेकर सियासी तापमान बढ़ता जा रहा है। प्रदेश में जाट समुदाय की सबसे अधिक जनसंख्या (27-30%) होने के बावजूद प्रमुख राजनीतिक दलों ने इस समुदाय को उम्मीदवारी से लगभग बाहर रखा है। इस अनदेखी ने राजनीतिक हलकों में नई बहस छेड़ दी है। प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा जाट उम्मीदवारों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व न देने से समुदाय में असंतोष बढ़ रहा है। इस मुद्दे पर सुरेंद्र सिंह हुड्डा ने ट्वीट कर तीखी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने लिखा, “हरियाणा में सबसे अधिक जनसंख्या वाले जाट समाज, जिसकी शहरी क्षेत्रों में भी उपस्थिति है, उस समाज से स्थानिक निकायों के चुनाव में प्रत्याशी न बनाना, एक बड़ा प्रश्न पैदा करना है।” ऐसे में हरियाणा के नगर निकाय चुनावों में जाट समुदाय की अनदेखी ने राजनीतिक दलों के सामने नई चुनौती खड़ी कर दी है। सवाल यह है कि भाजपा और कांग्रेस इस गलती को सुधारने के लिए क्या करेगी। यह मुद्दा चुनावी रणनीति का अहम मोड़ बनेगा? चुनावी नतीजे यह तय करेंगे कि जाट समुदाय की नाराजगी किसे कितना नुकसान पहुंचाएगी।
कांग्रेस की रणनीति में जाटों की उपेक्षा
कांग्रेस पार्टी ने हाल ही में 8 नगर निगमों के लिए अपने मेयर उम्मीदवारों की घोषणा की है। हालांकि, इन उम्मीदवारों में जाट समुदाय के प्रतिनिधित्व की कमी स्पष्ट है। उदाहरण के लिए, हिसार से कृष्ण सिंगला, करनाल से मनोज वाधवा, गुरुग्राम से सीमा पाहुजा, और मानेसर से नीरज यादव को टिकट दिया गया है, जो क्रमशः वैश्य, पंजाबी, और यादव समुदाय से आते हैं। जाट समुदाय के नेताओं का मानना है कि यह रणनीति पार्टी के पारंपरिक वोट बैंक को कमजोर कर सकती है।
भाजपा में भी जाटों की अनदेखी
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने भी अपने उम्मीदवारों की सूची में जाट समुदाय को अपेक्षित प्रतिनिधित्व नहीं दिया है। हिसार में भाजपा ने प्रवीण पोपली को मेयर पद का प्रत्याशी बनाया है, जो पंजाबी समुदाय से हैं। इसी तरह, अन्य नगर निगमों में भी जाट उम्मीदवारों की कमी देखी गई है। यह स्थिति भाजपा के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकती है, क्योंकि जाट समुदाय राज्य की राजनीति में प्रभावशाली भूमिका निभाता है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जाट समुदाय की अनदेखी से आगामी चुनावों में दोनों प्रमुख दलों को नुकसान हो सकता है। जाट मतदाता पारंपरिक रूप से कांग्रेस के समर्थक रहे हैं, लेकिन हाल के वर्षों में भाजपा ने भी इस समुदाय में अपनी पैठ बनाई है। यदि दोनों दल जाटों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं देते हैं, तो यह संभव है कि जाट मतदाता अन्य विकल्पों की तलाश करें या चुनाव में उदासीनता दिखाएं, जिससे चुनावी परिणाम प्रभावित हो सकते हैं।
जाट वोट बैंक की उपेक्षा से सियासी समीकरण बदलेंगे?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जाटों की अनदेखी से चुनावी समीकरण प्रभावित हो सकते हैं। परंपरागत रूप से यह समुदाय कांग्रेस का मजबूत समर्थक रहा है, लेकिन 2014 के बाद से भाजपा ने भी इसमें सेंध लगाई थी। अब, यदि दोनों दलों ने जाटों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया, तो संभावना है कि यह समुदाय अन्य विकल्पों की तलाश करे या फिर चुनाव में उदासीनता दिखाए।
हुड्डा का ट्वीट और विरोध के बढ़ते सुर
सुरेंद्र सिंह हुड्डा के ट्वीट के बाद सोशल मीडिया पर यह मुद्दा गर्मा गया है। कई सामाजिक और राजनीतिक संगठनों ने भी इस पर प्रतिक्रिया दी है। जाट संगठनों का कहना है कि “हम सिर्फ वोट बैंक नहीं, बल्कि सत्ता में भागीदारी भी चाहते हैं।”