शक्तिपीठ शाकम्भरी देवी मंदिर(Shakambhari Devi Temple) उत्तर प्रदेश के जिला सहारनपुर में अवस्थित एक महाशक्तिपीठ है। दुर्गा शाकम्भरी मां शक्ति हिन्दुओं की प्रमुख देवी हैं, जिन्हें देवी, भक्ति और पार्वती, जगदम्बा आदि नामों से भी जाना जाता हैं।
बता दें कि कामाख्या, रजरप्पा पीठ, तारापीठ, विंध्याचल पीठ की भांति यह भी एक सिद्ध पीठ है, क्योंकि यहां मां की प्रतिमा स्वयं सिद्ध है, जो कि दुर्लभ क्षेत्रों में ही होती है। केदारखंड के अनुसार यह शाकम्भरी क्षेत्र है, जिसकी महिमा अपार है।ब्रह्मपुराण में इस पीठ को सिद्धपीठ कहा गया है। अनेकों पुराणों और आगम ग्रंथों में यह पीठ परम पीठ, शक्तिपीठ, सतीपीठ और सिद्धपीठ नामों से चर्चित है। यह क्षेत्र भगवती शताक्षी का सिद्ध स्थान है। इस परम दुर्लभ तीर्थ क्षेत्र को पंचकोसी सिद्धपीठ कहा जाता है।
भगवती सती का शीश इसी क्षेत्र में गिरा था, इसलिए इसकी गणना देवी के प्रसिद्ध शक्तिपीठों में होती है। उत्तर भारत की नौ देवियों की प्रसिद्ध यात्रा मां शाकम्भरी देवी के दर्शन बिना पूर्ण नही होती। शिवालिक पर्वत पर स्थित यह शाकम्भरी देवी का सबसे प्राचीन तीर्थ है।
माता के मंदिर का पुनः अस्तित्व
माता शाकम्भरी देवी का मंदिर महाभारत काल के बाद घने वनों में होने के कारण लुप्त हो गया था। काफी समय तक आबादी से दूर होने की वजह से भक्त माता को भूल गए थे। एक बार स्थानीय नैन गूजर नाम का अंधा ग्वाला इस जंगल में भटक गया। रात भी अंधेरी थी और चारों और जंगली जानवरों की आवाजें भयग्रस्त लग रही थी। तभी नैन गूजर को देवी शताक्षी की दिव्य और मधुर वाणी सुनाई दी यह हमारा परमपीठ है तुम इसे पुनः प्रकाश में लाओ। नैन गूजर ने पूछा आप कौन है, तो आवाज आई मै शक्तिस्वरूपा शाकम्भरी देवी हूं। तब ग्वाले ने कहा अगर आप सचमुच शक्ति स्वरूपा है, तो मुझे नेत्र ज्योति प्रदान करके दिखाओ। उसी समय प्रकाश हुआ और ग्वाले को दिखाई देना लगा। तब ग्वाले गूजर ने माता का स्थान खोज कर साफ सफाई की और माता का यह स्थान पुनः अस्तित्व में आ गया।
मां का प्रिय फल सराल
माँ शाकम्भरी को नारियल चुनरी चढाई जाती हैं और इसके अलावा भक्तजन हलवा- पूरी, खील, बताशे, ईलायची दाना, मेवे – मिश्री व अन्य मिष्ठानो का भोग लगाते हैं। किंतु मां का प्रिय फल सराल है। सराल एक विशेष प्रकार का कंदमूल है, जो केवल शिवालिक पहाडियों और उसके आस-पास के क्षेत्र में ही पाया जाता है। यह शकरकंद की तरह का होता है, थोड़ी सी जमीन खोदने पर यह आसानी से मिल जाता है। जब धनुषधारिणी मां शाकम्भरी यहां प्रकट हुई और भूख-प्यास से संतप्त देवों-मुनियों को देखा तो माता ने अपने धनुष से पहाडियों पर एक तीर दे मारा। जिसमें सबसे पहले सराल की बेल चली और फिर अन्य वनस्पतियां और फल पैदा हुए। अतः अवतार दिवस पर मां शाकम्भरी को मुख्यतः सराल और सराल के हलवे का भोग भवन में लगाया जाता है।
आठवीं शताब्दी से पूर्व मिली 2 एकमुखी शिवलिंग प्रतिमाएं
मां शाकम्भरी देवी शक्तिपीठ पौराणिक होने के साथ-साथ ऐतिहासिक भी है। यहां से अनेकों पुरातन मंदिरों के अवशेष और मूर्तियां प्राप्त हुई है, यहां दो प्रतिमाएं एकमुखी शिवलिंग की भी मिली, जिनको आठवीं शताब्दी से पूर्व का माना जाता है। लगभग 350 ईसा पूर्व में जब चंद्रगुप्त का काल था, तो आचार्य चाणक्य और चंद्रगुप्त ने काफी समय इस सिद्धपीठ में व्यतीत कर अपनी सेना का गठन किया। उस समय मां शाकम्भरी देवी शक्तिपीठ स्रुघ्न देश का सबसे बड़ा तीर्थ स्थल था, जहां प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु देवी दर्शन के लिए आते थे।