Mahabharat की अनसुनी कहानी: युधिष्ठिर का अंतिम संस्कार क्यों नहीं हुआ, बाकि पांडवों का क्या हुआ था?

Mahabharat की अनसुनी कहानी: युधिष्ठिर का अंतिम संस्कार क्यों नहीं हुआ, बाकि पांडवों का क्या हुआ था?

धर्म-कर्म

Mahabharat की घटना में युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर में तय किया कि वह अब राजपाट छोड़कर अपने भाइयों और द्रौपदी के साथ हिमालय की चढ़ाई करेंगे। उनके इस निर्णय के पीछे भगवान कृष्ण की इच्छा थी, जो चाहते थे कि युधिष्ठिर को स्वर्गारोहण का पुण्य प्राप्त हो। इस यात्रा के दौरान, युधिष्ठिर के सभी भाई और द्रौपदी क्रमशः अपनी मृत्यु का सामना करते गए, लेकिन युधिष्ठिर अकेले अंतिम तक जीवित रहे।

जब युधिष्ठिर अंतिम गांव पहुंचे, तो वहां के लोग उनके अंतिम संस्कार की तैयारी करने लगे। लेकिन युधिष्ठिर ने उन्हें समझाया कि उनका शरीर अब इस संसार के लिए अनुपयुक्त है क्योंकि उन्होंने सभी सांसारिक संबंधों का त्याग किया है। उनकी आत्मा स्वर्ग की ओर जा रही थी, इसलिए उनके शरीर का अंतिम संस्कार नहीं किया गया।

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युधिष्ठिर के इस रहस्यमय अंतिम सफर में उनकी तपस्या और संयम की कहानी दिखाई देती है, जो एक आदर्श जीवन के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत की गई है। यह महाभारत में धर्म, त्याग और अंतिम मोक्ष की प्रतीक कथा है।

महाभारत में, जब पांडव हिमालय की ओर रवाना हुए, उनका इरादा था कि वे शरीर के साथ स्वर्ग की ओर जाएं। सभी पांडवों ने सोचा कि वे बिना किसी भेदभाव के स्वर्ग पहुंचेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हर पांडव के हिस्से में कुछ पाप थे, जिससे वे रास्ते में गिरकर मरते रहे।

युधिष्ठिर ने अपनी यात्रा के दौरान तपस्या की, संयमित जीवन जीया और हर सांसारिक संबंध से मुक्त हो गए। उनके जीवन के अंतिम क्षणों में, युधिष्ठिर का अंतिम संस्कार नहीं किया गया क्योंकि उनका शरीर केवल एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य कर रहा था। उनकी आत्मा पवित्र थी और स्वर्ग की ओर जा रही थी।

इसकी रहस्यपूर्णता को समझाने के लिए, कुछ धर्मग्रंथों का उल्लेख है कि युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण की उपदेशों का पालन किया और जीवन के सभी सांसारिक संबंधों को छोड़ दिया था। इसलिए, उन्हें स्वर्ग के मार्ग पर जाने की अनुमति थी और उनके शरीर का अंतिम संस्कार नहीं किया गया।

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यह पांडवों के कर्मों और आत्मा की पवित्रता की प्रतीक कथा है, जो दर्शाता है कि कैसे युधिष्ठिर ने अपने जीवन को पवित्रता में गुजारा और मोक्ष प्राप्त किया। यह महाभारत में धर्म, त्याग और आत्मा की अद्वितीयता का संदेश है।

जब युधिष्ठिर हिमालय की चढ़ाई कर रहे थे, उनके साथ एक कुत्ता भी था जो वास्तविकता में धर्मराज यम का रूप था। युधिष्ठिर के सभी भाई और द्रौपदी ने रास्ते में प्राण त्याग दिए, लेकिन युधिष्ठिर और यह कुत्ता उनके साथ चलते रहे। इस अंतिम यात्रा में, युधिष्ठिर ने अपने सभी सांसारिक संबंधों का त्याग कर दिया और केवल धर्म के साथ चलते रहे।

स्वर्ग के द्वार पर, इंद्र उन्हें अपने रथ पर सवार होकर स्वर्ग में आमंत्रित करने आए। उन्होंने युधिष्ठिर से कहा कि वे जीवित ही स्वर्ग में प्रवेश कर सकते हैं, लेकिन केवल एक शर्त थी—उन्हें कुत्ते का साथ छोड़ना होगा।

युधिष्ठिर ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने उत्तर दिया कि वह अपने धर्म से जुड़े कुत्ते को कैसे त्याग सकते हैं? इस बात पर इंद्र ने युधिष्ठिर की परीक्षा ली। उन्होंने समझाया कि कुत्ता दरअसल धर्मराज का रूप है और युधिष्ठिर की सच्ची परीक्षा यही थी कि वह अपने धर्म के प्रति सच्चे रहें, चाहे स्वर्ग की लालच हो या भोग।

इस परीक्षा में युधिष्ठिर के सच्चे धर्म ने उन्हें मोक्ष की प्राप्ति दिलाई। इस तरह, युधिष्ठिर ने न केवल स्वर्ग के द्वार तक अपनी यात्रा पूरी की, बल्कि उन्होंने धर्म के प्रति अपनी निष्ठा भी सिद्ध की। यह महाभारत की एक गूढ़ लेकिन प्रेरणादायक कथा है, जो यह संदेश देती है कि वास्तविक मोक्ष और स्वर्ग केवल सच्चे धर्म और त्याग से ही प्राप्त होते हैं।

जब युधिष्ठिर ने स्वर्ग के द्वार पर इंद्र के आमंत्रण को कुत्ते (धर्मराज) के बिना स्वीकार करने से इनकार किया, तब इंद्र को उनकी निष्ठा और धर्म के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता को मानना पड़ा। यह देखकर कि युधिष्ठिर अपने धर्म से समझौता नहीं करेंगे, धर्मराज ने अपना वास्तविक रूप प्रकट किया।

धर्मराज ने युधिष्ठिर को आश्वस्त किया कि उनके सच्चे धर्म और निष्ठा की परीक्षा पूरी हो चुकी है। इसके बाद, युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग पहुंचे, लेकिन उनका शरीर दिव्य रूप में बदल गया। युधिष्ठिर के दिव्य रूप का अर्थ है कि उन्होंने केवल शरीर को त्यागा नहीं, बल्कि अपने पवित्र धर्म और संयमित जीवन के बल पर स्वर्ग की अंतिम यात्रा की।

इस घटना से यह प्रतीत होता है कि युधिष्ठिर का मोक्ष केवल आत्मा का रहन-सहन नहीं, बल्कि शरीर के साथ दिव्य रूप में स्वर्ग पहुंचना भी है। यह महाभारत की एक गूढ़ कथा है, जो यह सिखाती है कि आत्मा की सच्ची भक्ति और निष्ठा के बल पर व्यक्ति स्वर्ग की ऊंचाइयों तक पहुंच सकता है। युधिष्ठिर के इस यात्रा से धर्म, त्याग और आत्मा की पवित्रता की शिक्षा मिलती है।

युधिष्ठिर के सशरीर स्वर्ग में प्रवेश के बाद, उनकी मृत्यु कभी नहीं हुई, इसलिए उनका अंतिम संस्कार भी नहीं हुआ। वह अकेले ऐसे व्यक्ति थे, जिनकी मृत्यु पृथ्वी पर नहीं हुई और इसीलिए उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया।

इसके विपरीत, बाकी पांडवों की मृत्यु रास्ते में ही हुई। उनके हिस्से में कुछ पाप थे, जिससे वे हिमालय की चढ़ाई के दौरान मर गए। जब युधिष्ठिर ने स्वर्ग की यात्रा की, तो उनके बाकी भाई और द्रौपदी पहले ही रास्ते में प्राण त्याग चुके थे।

पांडवों का अंतिम संस्कार कैसे हुआ, यह एक पहेली बना हुआ है। कुछ कहानियों के अनुसार, उनके शवों का जल में विसर्जन किया गया, लेकिन यह सिर्फ अनुमान है। इस रहस्यपूर्ण अंत में, पांडवों की मृत्यु और अंतिम संस्कार की प्रकृति को लेकर विभिन्न धर्मग्रंथों और पुराणों में अलग-अलग कथाएं हैं।

इस प्रकार, युधिष्ठिर के सशरीर स्वर्ग प्रवेश की कहानी बाकी पांडवों की मृत्यु और उनके अंतिम संस्कार की रहस्यपूर्ण स्थिति की ओर इशारा करती है, जो आज भी अनसुलझी पहेली बनी हुई है।

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महाभारत में, युधिष्ठिर और उनके भाई जब हिमालय की चढ़ाई कर रहे थे, द्रौपदी पहले गिरती हैं। उनकी मृत्यु के कारण के बारे में युधिष्ठिर ने बताया कि वह अर्जुन के प्रति विशेष रूप से पक्षपाती थीं, जिससे उनके हिस्से में एक पाप आया और इस कारण वे गिरकर मर गईं।

इसके बाद, क्रमशः सहदेव, नकुल, अर्जुन, और भीम भी रास्ते में एक-एक करके गिरते गए। यह घटना केवल मृत्यु नहीं, बल्कि प्रत्येक पांडव के कर्मों और उनके स्वभाव का संकेत देती है।

युधिष्ठिर के अनुसार, प्रत्येक पांडव ने अपने जीवन में कुछ विशेष पाप किए थे। सहदेव ने कभी भीम को समता नहीं दी, नकुल ने युधिष्ठिर के प्रति अपने श्रेष्ठता का भाव रखा, अर्जुन ने अपने पराक्रम का अहंकार किया, और भीम ने अपनी हिंसक प्रवृत्ति से खुद को पृथक किया।

इन पापों के कारण, पांडवों का निधन हुआ। उनका अंतिम संस्कार हिमालय के दुर्गम क्षेत्रों में ही हुआ। यह महाभारत की एक गूढ़ और प्रेरणादायक कथा है, जो दर्शाता है कि व्यक्ति की मृत्यु उसके कर्मों के अनुसार होती है। यह घटना जीवन के वास्तविक अर्थ और हमारे कर्मों की महत्ता को उजागर करती है।

इस प्रकार, महाभारत में द्रौपदी और पांडवों का अंतिम संस्कार आज भी एक रहस्य बना हुआ है, जो उनके जीवन के कर्मों और स्वभाव की गहराई को समझने के लिए एक प्रेरणा स्रोत है।

महाभारत की अंतिम यात्रा में, जब भीम गिरते हैं, वह अपने बड़े भाई युधिष्ठिर से सवाल करते हैं कि आखिर यह सब क्यों हुआ। युधिष्ठिर बताते हैं कि भीम ने बहुत अधिक भोजन किया और अपनी ताकत पर अत्यधिक घमंड किया, जिसके कारण उनका निधन हुआ।

इसके बाद, अर्जुन भी अपने पापों के कारण गिरते हैं। युधिष्ठिर बताते हैं कि अर्जुन ने हमेशा यह सोचा कि वह एक ही दिन में सभी शत्रुओं का नाश कर देंगे और धनुर्धरों का अनादर किया, जिससे उनका पाप उत्पन्न हुआ और वे प्राण त्यागते गए।

नकुल के गिरने के बाद, युधिष्ठिर बताते हैं कि नकुल का अहंकार था कि उनके जैसा रूपवान कोई नहीं था, जो उनके कर्मों के अनुसार परिणाम मिला।

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अब, युधिष्ठिर के साथ केवल कुत्ता (धर्मराज का रूप) ही बचे थे। यह संकेत देता है कि युधिष्ठिर का सशरीर स्वर्ग में प्रवेश करने का कारण था, जबकि बाकी पांडव और द्रौपदी के शव हिमालय की बर्फ से ढके क्षेत्रों पर रह गए।

इस दृष्टिकोण से देखा जाए, तो उनकी मृत्यु और अंतिम संस्कार भी हिमालय जैसी पवित्र भूमि में हुआ, जो उनके शरीर का अंतिम संस्कार के बराबर माना जा सकता है। धार्मिक दृष्टि से यह माना जाता है कि किसी स्थानीय ऋषि, तपस्वी, या देवदूतों ने उनके शवों का अंतिम संस्कार किया। यह महाभारत की गूढ़ और प्रेरणादायक कथा है, जो कर्म और पवित्रता की सच्चाई को उजागर करती है।

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