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Mahabharat: पांडवों ने क्यों नहीं की मूर्ति पूजा? जानें महाभारत काल के धार्मिक रहस्य

धर्म

Mahabharat के काल में पांडव धार्मिक और वैदिक परंपराओं के प्रति समर्पित थे। युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल, और सहदेव ने यज्ञ, मंत्रोच्चार और देवताओं की स्तुति जैसे धार्मिक कार्यों को जीवन का हिस्सा बनाया। बावजूद इसके, उन्होंने न तो मूर्ति पूजा की और न ही मंदिरों में जाकर पूजा-अर्चना की।

मूर्ति पूजा क्यों नहीं करते थे पांडव?

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महाभारत काल में वैदिक परंपराओं का पालन होता था। उस समय देवताओं की पूजा यज्ञ और हवन के माध्यम से की जाती थी। मूर्ति पूजा का प्रचलन उस समय नहीं था। वैदिक मान्यताओं के अनुसार, ईश्वर को निराकार और असीमित माना जाता था। देवताओं की मूर्तियों को पूजने के बजाय प्राकृतिक शक्तियों जैसे अग्नि, वायु, सूर्य और चंद्रमा की पूजा होती थी।

धार्मिक जीवन और पूजा की विधि
पांडवों का धार्मिक जीवन कर्मकांडों और वैदिक अनुष्ठानों पर आधारित था। युधिष्ठिर, जिन्हें धर्म का प्रतीक माना जाता है, ने कई बड़े यज्ञ आयोजित किए। भीम भगवान हनुमान के भक्त थे, जबकि अर्जुन भगवान कृष्ण को ईश्वर मानते थे। द्रौपदी देवी दुर्गा की उपासक थीं।

कब शुरू हुई मूर्ति पूजा?
भारत में मूर्ति पूजा का आरंभ महाभारत काल के बाद हुआ। माना जाता है कि 500 ईसा पूर्व से दूसरी सदी तक के दौर में मूर्ति पूजा ने अपनी जगह बनाई। बौद्ध धर्म और जैन धर्म ने मूर्तियों का निर्माण बढ़ावा दिया। इसी समय भगवान बुद्ध और जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां बनने लगीं।

मंदिर निर्माण का स्वर्ण युग
भारत में मंदिर निर्माण का स्वर्ण युग गुप्त काल (तीसरी सदी से छठी सदी) को माना जाता है। इसी दौरान भगवान विष्णु, शिव और देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियों के लिए मंदिर बनाए गए।

युधिष्ठिर और भीष्म का धार्मिक योगदान

युधिष्ठिर और भीष्म पितामह ने वैदिक परंपराओं का पालन करते हुए धार्मिक अनुष्ठानों और यज्ञों का आयोजन किया। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ और भीष्म के तप और ब्रह्मचर्य का उल्लेख महाभारत में विस्तृत रूप से मिलता है। महाभारत काल में धार्मिकता का आधार कर्मकांड और यज्ञ थे। मूर्ति पूजा और मंदिर जाने की परंपरा उस समय नहीं थी। पांडवों ने वैदिक परंपराओं का पालन करते हुए धर्म का प्रचार किया और मानवता के लिए आदर्श प्रस्तुत किया।

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